Monday 2 March 2009

नज़्म

मोहब्बत के सफर पर चले वाले रही सुनो,
मोहब्बत तो हमेशा जज्बातों से की जाती है,
महज़ शादी ही मोहब्बत का साहिल नहीं,
मंजिल तो दूर इससे बहुत दूर जाती है ।

जिन निगाहों में मुकाम- इश्क शादी है
उन निगाहों में फ़कत हवस बदन की है,
ऐसे ही लोग मोहब्बत को दाग़ करते है
क्योंकि इनको तलाश एक गुदाज़ तन की है ।

जिस मोहब्बत से हजारों आँखें झुक जायें ,
उस मोहब्बत के सादिक होने में शक है
जिस मोहब्बत से कोई परिवार उजडे
तो प्यार नहीं दोस्त लपलपाती वर्क है ।

मेरे लफ्जों में, मोहब्बत वो चिराग है
जिसकी किरणों से ज़माना रोशन होता है
जिसकी लौ दुनिया को राहत देती है
न की जिससे दुखी घर, नशेमन होता है ।

मेरे दोस्त ! जिस मोहब्बत से पशेमान होना पड़े
मैं उसे हरगिज़ मोहब्बत कह नहीं सकता
नज़र जिसकी वजह से मिल न सके ज़माने से
मैं ऐसी मोहब्बत को सादिक कह नहीं सकता ।

मैं भी मोहब्बत के खिलाफ नहीं हूँ
मैं भी मोहब्बत को खुदा मानता हूँ
फर्क इतना है की मैं इसे मर्ज़ नहीं
ज़िन्दगी सँवारने की दवा मानता हूँ ।

साफ हरफों में मोहब्बत उस आईने का नाम है
जो हकीकत जीवन की हँस कर कबूल करवाता है
आदमी जिसका तस्सव्वुर कर भी नहीं सकता
मोहब्बत के फेर में वो कर गुज़र जाता है ।

(उपरोक्त नज़्म काव्य संकलन " फलकदीप्ती " से ली गई है )

Sunday 1 March 2009

नज़्म

आसमान ने सितारों भरी ओढ़ के चादर
ज़मी का हाथ पकड़ कहा ! चलो मेरी जान
अपनी औलाद जिसे दुनिया कहती है इंसान
उसकी खुशियों के वास्ते आओ दुआ माँगे ।

सारे संसार की हर एक ख़ुशी उन्हें देना मेरे मौला
उनके सपनों को ताबीर हासील हो किसी भी हाल
उनकी दौलत , शोहरत , इज्ज़्त में हो खूब इजाफा
उनकी हर ख़्वाहिश को साकार बनाए नया साल
दीपक' तेरी देहरी में जलातें हैं ऐ ! जगतारक
औलादें सब कुदरत की सबको नया साल मुबारक़ ॥

नज़्म

हर बाम पर रोशन काफ़िला - ए - चिराग़
हर बदन पर कीमती चमकते हुए लिबास
हर रूख पर तबस्सुम की दमकती लहर
लगती है शब भी आज कि जैसे हो सहर
माहौल खुशनुमा है या खुदा इस कदर
दीखता है कभी - कभी ऐसा बेनज़ीर मंज़र ।

मैं सोचता चल रहा हूँ अपने घर कि ओर
कहाँ चली गई तारिकियाँ ,कहाँ बेबसी का ज़ोर
कहाँ साये - ग़म के खो गये , कहाँ निगाह से आब
कहाँ खामोशियाँ लबों की , कहाँ आहों का शोर ।
पूरा शहर की तरह झिलमिला रहा है
जर्रा - ज़र्रा बस्तियों का नज़्म गा रहा है ।

डूबा इसी ख्याल में जब मैं अपना दर खोलता हूँ
तो दिखती हैं खामोशियाँ, तन्हाइयां पुरे शहर की तीरगी ,
पूरे शहर का दर्द पूरे शहर की बेबसी और आह की परछाइयाँ ॥

( उपरोक्त नज़्म काव्य संकलन मंज़र से ली गई है )

तुम बहुत से ख़्वाब निगाहों में सजाये बैठी हो

मैंने हजारों अरमान दिल में पाल रखें हैं ,

एक मंज़र की चाहत तेरे वजूद को है मुझसे ,

मैंने कुछ सपने तेरे नाम के संभाल रखे हैं ।

तुम को यकीं तो है मगर एक डर भी है

की तेरे सपने कहीं मेरी आंखों से टूट न जाएँ

तेरी ज़िन्दगी का सहारा हैं जो खूबसूरत लम्हें

अचानक वो कहीं तुझसे मुझसे रूठ ना जाएँ । ।

( उपरोक्त नज़्म कवि की अप्रकाशित रचना है )

नज़्म

तमाम दिन मैं सोचता रहा तुम्हारी बाबत
तमाम रात तेरे ख्वाबों में जागता रहा ,
हर लम्हा तुम आंखों में मुस्कुराती रही ,
हर लम्हा मैं अपनी आंखों में झांकता रहा ।

पलक बंद थी फ़िर भी न जाने कहाँ से ,
आंसू आंखों से बगावत करने पे आमादा थे,
आवाज बेशब्द, बेलय थी, मन में भारीपन था
दुःख कम थे, दुःख -दर्द के साए ज्यादा थे ।

बहुत दूर थी तुम लेकिन अहसास में तुमने
मेरे सीने पे अपना चेहरा प्यार से रक्खा था,
मेरे होंठ झुके थे तुम्हारे नर्म बालों पर
अपने हाथों से मेरा हाथ तुमने दबा रक्खा था ।

फ़िर कल सुबह देखा तुम्हें अजदाद के साथ
जी में आया की कस कर गले तेरे लग जाऊँ
कुछ तो कम कर लूँ आंखों की तड़प को,
तुम्हारे काँधे पे सिर रखकर कहीं खो जाऊँ ।

लेकिन अफ़सोस , पांवो को कसकर रोक लिया
कुछ परवरिश ने, संस्कार ने, लोगों के शर्म ने
कुछ भय ने कि तुम नुमाया न हो जाओ
कुछ तुम्हारी चाहत ने , कुछ ह्रदय के मर्म ने ।

मैं तुम्हारे पास खड़ा तुम्हें ताकता रहा
लेकिन तुम और कहीं मुझको तलाश रहीं थी,
मैं एकटक देख रहा था तुम्हारे चेहरे को
और तुम मुझको भीड़ में तांक रही थीं ।

मगर अफ़सोस ! तुम मुझे मिल न सकीं
नज़र मिलती तो थोड़ा सुकून भी मिल जाता,
दूर से ही सही, एक दुसरे को मिलकर
तुम भी हंस जाती, मन मेरा भी खिल जाता ।

( उपरोक्त नज़्म काव्य संकलन falakdipti से ली गई है )

नज़्म

इतना ख़ुद को मैंने कभी तनहा नहीं देखा
इतना ख़ुद को मैंने कभी तनहा नहीं पाया
दिलो -दिमाग नाकाम हो गए हैं इस कदर
कहीं पर जि़स्म, कहीं पर दीखता साया ।

एक खलिश सी जेहन में सिर उठाती है
बेवजह आँख कभी ख़ुद ही नम हो जाती है
कभी बढ जाती लहू की रवानी जि़स्म में
और कभी नब्ज़ एक दम ही डूब जाती है ।
धुंधले साए कभी इतने नज़र आते हर सूं
देखना ख़ुद को गर चाहा तो देख नहीं पाया ॥

सोचता हूँ कुछ तो कुछ और तसव्वुर होता है
मन पल में शाद और पल में चूर - चूर होता है
कभी लगता है कोई बहुत हो करीब है मेरे
और कभी ख़ुद ही से मेरा साया दूर होता है ।
जाने कितनी ऐसी तब्दीलियाँ मुझमें
आती हैं और एक नक्श छोड़ जाती हैं
एक लम्बी राह के सुनसान मोड़ पर
मुझको भटके मुसाफिर - सा छोड़ जाती हैं ।

सोचता हूँ ये कहीं मेरी आदत तो नहीं
मेरी हस्ती या मेरी फितरत तो नहीं
या फ़िर सोई हुई तमन्नाओं ने करवट ली है
या किसी की चाहत तो नहीं, मुझे मोहब्बत तो नहीं ।

( उपरोक्त नज़्म काव्य संकलन मंज़र से ली गई है )

नज़्म

मेरे जेहन में कई बार ये ख्याल आया
की ख्वाब के रंग से तेरी सूरत संवारूँ
इश्क में पुरा डुबो दूँ तेरा हसीन पैकर
हुस्न तेरा निखारू और ज्यादा निखारूँ ।

जुल्फ उलझाऊँ कभी तेरी जुल्फ सुलझाऊं
कभी सिर रखकर दामन में तेरे सो जाऊँ
कभी तेरे गले लगकर बहा दूँ गम अपने
कभी सीने से लिपटकर कहीं खो जाऊँ
कभी तेरी नज़र में उतारूँ मैं ख़ुद को
कभी अपनी नज़र में तेरा चेहरा उतारूँ।
इश्क में पूरा डुबो दूँ तेरा हसीन पैकर
हुस्न तेरा निखारू और ज्यादा निखारूँ ॥

अपने हाथों में तेरा हाथ लिए चलता रहूँ
सुनसान राहों पर, बेमंजिल और बेखबर
भूलकर गम सभी, दर्द तमाम, रंज सभी
डूबा तसव्वुर में बेपरवाह और बेफिक्र
बस तेरा साथ रहे और सफर चलता रहे
सूरज उगता रहे और चाँद निकलता रहे
तेरी साँसों में सिमटकर मेरी सुबह निकले
तेरे साए से लिपटकर मैं रात गुजारूँ
इश्क में पुरा डुबो दूँ हँसीन पैकर
हुस्न तेरा निखारूँ और ज्यादा निखारूँ ॥

मगर ये इक तसव्वुर है मेरी जान - जिगर
महज एक ख्वाब और ज्यादा कुछ भी नहीं
हकीकत इतनी तल्ख है की क्या बयाँ करूँ
मेरे पास कहने तलक को अल्फाज़ नहीं ।
कहीं पर दुनिया दिलों को नहीं मिलने देती
कहीं पर दरम्यान आती है कौम की बात
कहीं पर अंगुलियाँ उठाते हैं जग के सरमाये
कहीं पर गैर तो कहीं अपने माँ- बाप ॥

कहीं दुनिया अपने ही रंग दिखाती है
कहीं पर सिक्के बढ़ाते हैं और ज्यादा दूरी
कहीं मिलने नहीं देता है और ज़ोर रुतबे का
कहीं दम तोड़ देती है बेबस मजबूरी ॥

अगर इस ख़्वाब का दुनिया को पता चल जाए
ख़्वाब में भी तुझे ये दिल से न मिलने देगी
कदम से कदम मिलकर चलना तो क़यामत
तुझे क़दमों के निशान पे भी न चलने देगी ।
चलो महबूब चलो , उस दुनिया की जानिब
चलें जहाँ न दिन निकलता हो न रात ढलती हो
जहाँ पर ख्वाब हकीकत में बदलते हों
जहाँ पर सोच इंसान की न जहर उगलती हो ।।

(उपरोक्त नज़्म काव्य संकलन मंज़र से ली गई है )

नज़्म

मेरी साँसों में यही दहशत समायी रहती है
मज़हब से कौमें बँटी तो वतन का क्या होगा ।

यूँ ही खिंचती रही दीवार ग़र दरम्यान दिल के
तो सोचो हश्र क्या कल घर के आँगन का होगा ।

जिस जगह की बुनियाद बशर की लाश पे ठहरे
वो कुछ भी हो लेकिन ख़ुदा का घर नहीं होगा ।

मज़हब के नाम पर कौ़में बनाने वालों सुन लो तुम
काम कोई दूसरा इससे ज़हाँ में बदतर नहीं होगा ।

मज़हब के नाम पर दंगे, सियासत के हुक्म पे फितन
यूँ ही चलते रहे तो सोचो , ज़रा अमन का क्या होगा ।

अहले -वतन शोलों के हाथों दामन न अपना दो
दामन - रेशमी है देख लो फिर दामन का क्या होगा ।

(उपरोक्त कविता काव्य संकलन falakdipti से ली गई है )