Sunday 1 March 2009

नज़्म

हर बाम पर रोशन काफ़िला - ए - चिराग़
हर बदन पर कीमती चमकते हुए लिबास
हर रूख पर तबस्सुम की दमकती लहर
लगती है शब भी आज कि जैसे हो सहर
माहौल खुशनुमा है या खुदा इस कदर
दीखता है कभी - कभी ऐसा बेनज़ीर मंज़र ।

मैं सोचता चल रहा हूँ अपने घर कि ओर
कहाँ चली गई तारिकियाँ ,कहाँ बेबसी का ज़ोर
कहाँ साये - ग़म के खो गये , कहाँ निगाह से आब
कहाँ खामोशियाँ लबों की , कहाँ आहों का शोर ।
पूरा शहर की तरह झिलमिला रहा है
जर्रा - ज़र्रा बस्तियों का नज़्म गा रहा है ।

डूबा इसी ख्याल में जब मैं अपना दर खोलता हूँ
तो दिखती हैं खामोशियाँ, तन्हाइयां पुरे शहर की तीरगी ,
पूरे शहर का दर्द पूरे शहर की बेबसी और आह की परछाइयाँ ॥

( उपरोक्त नज़्म काव्य संकलन मंज़र से ली गई है )

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