इतना ख़ुद को मैंने कभी तनहा नहीं देखा
इतना ख़ुद को मैंने कभी तनहा नहीं पाया
दिलो -दिमाग नाकाम हो गए हैं इस कदर
कहीं पर जि़स्म, कहीं पर दीखता साया ।
एक खलिश सी जेहन में सिर उठाती है
बेवजह आँख कभी ख़ुद ही नम हो जाती है
कभी बढ जाती लहू की रवानी जि़स्म में
और कभी नब्ज़ एक दम ही डूब जाती है ।
धुंधले साए कभी इतने नज़र आते हर सूं
देखना ख़ुद को गर चाहा तो देख नहीं पाया ॥
सोचता हूँ कुछ तो कुछ और तसव्वुर होता है
मन पल में शाद और पल में चूर - चूर होता है
कभी लगता है कोई बहुत हो करीब है मेरे
और कभी ख़ुद ही से मेरा साया दूर होता है ।
जाने कितनी ऐसी तब्दीलियाँ मुझमें
आती हैं और एक नक्श छोड़ जाती हैं
एक लम्बी राह के सुनसान मोड़ पर
मुझको भटके मुसाफिर - सा छोड़ जाती हैं ।
सोचता हूँ ये कहीं मेरी आदत तो नहीं
मेरी हस्ती या मेरी फितरत तो नहीं
या फ़िर सोई हुई तमन्नाओं ने करवट ली है
या किसी की चाहत तो नहीं, मुझे मोहब्बत तो नहीं ।
( उपरोक्त नज़्म काव्य संकलन मंज़र से ली गई है )
Sunday, 1 March 2009
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