Sunday 1 March 2009

नज़्म

तमाम दिन मैं सोचता रहा तुम्हारी बाबत
तमाम रात तेरे ख्वाबों में जागता रहा ,
हर लम्हा तुम आंखों में मुस्कुराती रही ,
हर लम्हा मैं अपनी आंखों में झांकता रहा ।

पलक बंद थी फ़िर भी न जाने कहाँ से ,
आंसू आंखों से बगावत करने पे आमादा थे,
आवाज बेशब्द, बेलय थी, मन में भारीपन था
दुःख कम थे, दुःख -दर्द के साए ज्यादा थे ।

बहुत दूर थी तुम लेकिन अहसास में तुमने
मेरे सीने पे अपना चेहरा प्यार से रक्खा था,
मेरे होंठ झुके थे तुम्हारे नर्म बालों पर
अपने हाथों से मेरा हाथ तुमने दबा रक्खा था ।

फ़िर कल सुबह देखा तुम्हें अजदाद के साथ
जी में आया की कस कर गले तेरे लग जाऊँ
कुछ तो कम कर लूँ आंखों की तड़प को,
तुम्हारे काँधे पे सिर रखकर कहीं खो जाऊँ ।

लेकिन अफ़सोस , पांवो को कसकर रोक लिया
कुछ परवरिश ने, संस्कार ने, लोगों के शर्म ने
कुछ भय ने कि तुम नुमाया न हो जाओ
कुछ तुम्हारी चाहत ने , कुछ ह्रदय के मर्म ने ।

मैं तुम्हारे पास खड़ा तुम्हें ताकता रहा
लेकिन तुम और कहीं मुझको तलाश रहीं थी,
मैं एकटक देख रहा था तुम्हारे चेहरे को
और तुम मुझको भीड़ में तांक रही थीं ।

मगर अफ़सोस ! तुम मुझे मिल न सकीं
नज़र मिलती तो थोड़ा सुकून भी मिल जाता,
दूर से ही सही, एक दुसरे को मिलकर
तुम भी हंस जाती, मन मेरा भी खिल जाता ।

( उपरोक्त नज़्म काव्य संकलन falakdipti से ली गई है )

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